गुरुवार, 21 अगस्त 2008

मनोज मेहता की कविता

ताल ठोकते
आमने सामने दो वीर
नगाड़े - ढोलक
चीख – पुकार
उमड़ता हुआ पूरा गांव
मिट्टी और पसीने का
मुंह में फैला – एक सा स्वाद
अवसर फिसलने की निराशा
दबोच लेने के
तमाम पैंतरों के बीच
जरूरी नहीं है यह जिक्र
कि इनके पास होता था
हजार – हजार हाथियों का बल
ये राजा होते थे
सेनापति होते थे
और हस्तिनापुर , मगध , काशी
हर जगह पाये जाते थे
ये पी जाते थे
दसियों मन दूध
सेरो घी
लगाते थे
कई – कई योजन का चक्कर
हजारों बैठकें
और ललकार भर देने से
मच जाता था घमासान
जूझते थे हफ्तों – अथक

अब कोई वैसे ललकारे
तो हंसी होगी उसकी
रणनीतिक भूल
कि न्यूज चैनलों के हित ही
अब लड़े जाते हैं युद्ध
कि जब तक वह कसेगा अपनी लंगोट
तब तक खुल जाएगा
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ का पिटारा
और उसके मसखरे
निकल कर टहलने लगेंगे
वायरस की तरह
लोगों के दिमाग में
कि गिर जाएगा
शेयर बाजार का पहाड़ उसकी पीठ पर
और वह मन ही मन
पूजता रह जाएगा
महावीर जी को

मौका ऐसे ही किसी कारण
चूक जाएगा कोई एक
और दूसरा
धम्म से जा बैठेगा
उसकी छाती पर
उमेठने लगेगा उसकी गर्दन

शोर का एक बवंडर उठेगा
थकान , प्यास
ऐंठती हुई अंतड़ियों
और पसीने से लिथड़ा
अखाड़े की छाती से उठ कर
वह दौड़ने लगेगा
चक्राकार
ढोल – नगाड़े
बरसते हुए पैसों
और जयकार के बीच
एक हाथ में
प्रतिरोध का
पूर्व पाषाणयुगीन विकल्प लिए।

कविता मत लिख िचरकुट

धरती को कागज बना
सागर को स्याही
और लिख....लिख मार
जो भी दिल में आये
मेरे भाई।
वेदना में लिख
भावना में लिख
कभी क्षुब्ध हो जा
फिर उत्तेजना में लिख
तेरी विस्फोटक प्रतिभा
से आतंकित कर दे , समाज को
लिख दे कुछ भी रॉकेट छाप
मिला दे धरती आकाश
लोग कहें... छाती पर हाथ धर
वो मारा
भाई वाह, लिख दिया जहां सारा।
दांत किटकिटा
सिर के बल खड़ा हो जा
कलाबाजियां खाते- खाते लिखा कर
सरेआम मत बोल
बस वक्राकार हँस
बुद्घिजीवी दिखा कर
और कुछ भी लिखा कर

बेटे,आसाराम बन
रामचरित लिख
गुलशन को गुरू बना
कटी पतंग लिख
ब्लॉगर बन
पुण्यात्माओं की पूजा कर
खबरिया चैनल से रोटी जुगाड़ के
उनकी ही मां—बैन कर।
खबर की मौत हो
चाहे मौत की खबर
बेरहम और बाजारू
पत्रकारिता को लानत भेज
टेसू बहाया कर , नैतिकता पेला कर
जमी जमाई दूकान की मसलंद पर टिककर
निर्भय पादा कर ।
लेकिन,एक छोटी सी अरज है भाई
चाहे कुछ भी लिख- पोत
उखाड़-पछाड़
हमे कोई फर्क नहीं पड़ता मगर
सिर्फ लिखने के लिए
कविता मत लिख चिरकुट
हमारी जातीय संवेदना
सिहर जाती है।

सुनंदा राय की कविता

(एक)

रोज टूटते हैं
पत्ते-
दरख्त नहीं मैं जानती हूं
पतझड़ के बाद का दुख ।


(दो)

सो जाती हूं तब
पैर दौड़ते हैं
तुम्हारे पीछे - पीछे ।
हाय री- गुड़िया रानी
कित्ता - कित्ता पानी ।


(तीन)

नुक्कड़ की दुकान से
दस रूपए का गुलाब खरीदकर
दिया उसने
और कहा - प्यार
वह एक शरीफ दुनियादार आदमी था।

(चार )

दो अंगुल की बुद्धि
मां की
चावल का पानी नापती रही
मैं दो अंगुल से देखती हूं
दुनिया
कितने पानी में ।